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लेखनी कहानी -16-Jan-2023 6)नये स्कूल में पहला दिन ( स्कूल - कॉलेज के सुनहरे दिन )



शीर्षक = नये स्कूल में पहला दिन




चलते रहने का नाम ही जिंदगी है, ना जाने कितने लोग, कितनी चीज़े, कितने हादसात हम सब की जिंदगी में पेश आते रहते है, लेकिन उन सब को पीछे छोड़ हम जीवन रुपी इस नदी में समय की धारा के साथ बहते रहते है, इसी का नाम जिंदगी है, जीवन ना तो किसी के लिए रुका है और न ही कभी रुक सकता है अलबत्ता समय पूरा होने पर इंसान भले ही मृत्यु शय्या पर लेट जाता है, लेकिन उसके चले जाने से भी किसी दुसरे के जीवन पर कोई फर्क नही पड़ता अलबत्ता उसकी कमी तो जीवन भर महसूस होती है, लेकिन कोई भी किसी की यादोंको,उसके जाने के गम को सीने से लगाए नही बैठा रहता है, अगर ऐसा होता तो ये दुनिया बहुत पहले ही अपना वजूद खो चुकी होती, और आज़ यहां सर विराने के कुछ नज़र नही आता


ऐसे ही हम भी उस स्कूल और उससे जुडी यादें, वहाँ बनाये दोस्तों को अपने दिल के एक कोने में सजा कर, अपनी जिंदगी के सफर में और शिक्षा के शिखर तक पहुंचने के लिए छठे पायदान पर पैर रखने के लिए आगे बड़े


इस बार हमारा दाखिला किसी गली मोहल्ले के स्कूल में नही बल्कि हमारे घर से एक किलोमीटर दूर, मुख्य चौराहे पर बने एक बड़े से सरकारी स्कूल में हुआ, जिसका नाम राजकीय हाईस्कूल था  लेकिन बाद में उसमे कुछ बदलाव कर दिया गया था जिसका जिक्र आगे के संस्मरण में किया जाएगा


गली, मोहल्ले के स्कूल से निकल कर सीधा एक किलोमीटर दूर मुख्य चौराहे पर बने स्कूल में जाना हमारे लिए एक नया अनुभव सा था, क्यूंकि बचपन से ही हम ज्यादा घर से बाहर नही निकलते थे, गली के बच्चों के साथ घर के आस पास खेल कूद कर सीधा घर आ जाते थे, क्यूंकि हमारी अम्मी की अनुमति नही थी की हम ज्यादा बाहर गली के बच्चों के साथ खेले, ऐसा सिर्फ हमारे साथ नही बल्कि हमारे और भाई बहनो के साथ भी था, इसी बात पर एक बात याद आ गयी हमें और हमारे बहन भाइयो को हमारी अम्मी की मार से इतना डर लगता था जिसके चलते हम बाहर गली में अपना नाम बदल कर खेलते थे, ऐसा नही था की हमारे ऊपर सख़्ती बरती जाती थी ऐसा बस इसलिए होता था क्यूंकि वो नही चाहती थी की हम लोग किसी गन्दी आदत में पड़ जाए, और जैसा की हमने बताया की हमें पापा का साथ हफ्ते में एक या दो दिन ही मिल पाता था क्यूंकि वो काम के चलते बाहर रहते थे, बताता चलू मेरे पापा एक जैनट्स टेलर थे उनके हाथ के बने कोर्ट पैंट लोगो को बेहद पसंद आते थे, उनके एक ग्राहक थे पंडित जी, हर तीज त्योंहर पर वो उन्ही से अपने कपड़े पठानी सूठ बनवाते थे, और वो उन्हें खान साहब कहकर मुख़ातिब करते थे, अब भी कभी गली नुककड़ पर वो मिलते है, तब देख कर मुस्कुराते जरूर है, उनकी बेहद बड़ी बड़ी मूछे है,जिसके चलते बचपन से लेकर अब तक उनकी छवि दिमाग़ में बनी हुयी है


माफ करना कहाँ से कहाँ निकल गया, चलिए मुद्दे पर आते है, उस स्कूल को अलविदा कह कर अब हमारा सफऱ एक नये सिरे से नये स्कूल, नये दोस्तों नये अध्यापकों के साथ शुरू होने जा रहा था


अब तक हम जिस स्कूल में भी पढ़े वहाँ, अध्यापकों के साथ साथ अध्यापिकाएं भी थी, जो की बच्चों को बहुत प्यार और स्नेह पूर्वक पढ़ाती थी, लेकिन इस नये स्कूल में जो की सिर्फ लड़को का था और वो भी एक सरकारी स्कूल, सरकारी स्कूल के बारे में तो हम सब ही जानते है वहाँ किस तरह के  बिगड़े बच्चें पढ़ने आते है इसलिए उन्हें पढ़ाने के लिए मास्टर साहब का तेज और खुरराट होना तो लाजमी था


और हम ठहरे सीधे सादे बच्चें, हमें तो पहले इतनी दूर स्कूल जाने में ही आपत्ति थी और उसके बाद हमारा सामना एक से एक गुस्सैल मास्टर साहब से होने जा रहा था, इस बात ने हमें और ज्यादा खौफ जदा कर दिया था


आखिर कार कक्षा 6 में हमारा दाखिला हो गया, छोटे छोटे स्कूल से निकल कर उस बड़े से दरवाज़े वाले स्कूल में हमने जैसे ही कदम रखा हमें वो स्कूल कम पुरानी फिल्मों में दिखाई जाने वाली भूतिया हवेली मालूम पड़ी


वो स्कूल बहुत ज्यादा ही पुराना था, ये समझ लीजिये की हमारे बड़े भाई के दोस्तों ने उसमे पढ़ा था और साथ ही साथ बहुत से लोगो ने उसमे दसवीं की परीक्षा दी थी जो उस समय या तो कही पढ़ा रहे थे या फिर कोई हुनर सीख कर अपनी रोज़ी रोटी कमा रहे थे


उस स्कूल का कलर पीला हुआ करता था, जो की पुराना होने की वजह से और शायद बरसों से रंग रोगन ना होने की वजह से हल्का पड़ गया था


उसकी कक्षाएं इतनी बड़ी बड़ी थी, और उसी के साथ उसमे खेलने का मैदान भी काफ़ी बड़ा था

उस स्कूल की ड्रेस आसमानी रंग की शर्ट और खाखी रंग की पैंट हुआ करती थी, जैसा की सरकारी स्कूल की होती है


हमारे मोहल्ले के तो ना सही लेकिन दुसरे मोहल्ले के बच्चें भी उसमे पढ़ते थे, और उन्होंने भी नया नया दाखिला लिया था, हम सब बहुत डरे हुए थे, क्यूंकि मेरे साथ साथ वो बच्चें भी ऐसे ही किसी छोटे स्कूल से निकल कर उस बड़े स्कूल में आये थे, जहाँ 9 वी और 10 वी कक्षाओं के विद्यार्थी हमें अपने बड़े भाई जैसे लग रहे थे


वो दिन तो पूरा स्कूल को निहारने में ही चला गया, एक दो अध्यापक भी आये थे उस दिन लेकिन अभी किताबें ना होने की वजह से कुछ पढ़ा नही सके, उन्होंने बताया की कुछ दिनों में सरकारी किताबें उपलब्ध हो जाएंगी, आप सब अपना अपना नाम लिख कर हमें देदो, ताकि जल्द से जल्द किताबें आ सके


हम सब ने वैसा ही किया, हम सब बेहद खुश थे, सब घुल मिल गए थे, तीन चार दिन खाली कॉपी पेन ले जाने के बाद वो दिन आ ही गया ज़ब हमें किताबें वितरित हुयी, नयी किताबों को पढ़ने का शोक तो हर किसी बच्चें को होता ही है, सब ने अपनी अपनी किताबें हासिल की, हिंदी की किताब का नाम मंजरी था और इंग्लिश की किताब का नाम रेनबो था,
उसी के साथ और भी बहुत सी किताबें थी जिसमे विज्ञान और गणित की किताब मेरी पसंदीदा थी


किताबें मिलने के बाद हम सब अपनी अपनी कक्षा में चले गए थे, थोड़ी देर बाद हमारे क्लास टीचर ने आकर हमें किताबें मिलने पर बधाई दी और उसके बाद बताया की हम लोगो को कही जाना है, सब ड्रेस पहन कर आये और सारी किताबें लेकर


ये सुन हम बहुत खुश हुए, लेकिन कहा जाना था ये नही जानते थे, हम सब बेहद उत्साहित थे की आखिर पूरा स्कूल कहा जा रहा है


आखिर कहा गए थे हम, जानने के लिए जुड़े रहे मेरे साथ मेरे इस सफऱ में


स्कूल / कॉलेज के सुनहरे दिन 



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4 Comments

Radhika

09-Mar-2023 01:39 PM

Nice

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Rajeev kumar jha

31-Jan-2023 12:30 PM

Nice

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